हिंदू पैदा हुए, लेकिन हिंदू नहीं रहना चाहते थे अंबेडकर – जानिए उनके दिल की बात
डॉ. भीमराव अंबेडकर, जिनका नाम आज भी सामाजिक न्याय की लड़ाई का प्रतीक है, उन्होंने अपने जीवन में एक ऐतिहासिक फैसला लिया था—धर्म परिवर्तन का। यह सिर्फ उनका व्यक्तिगत निर्णय नहीं था, बल्कि करोड़ों दलितों के जीवन और सोच को बदलने वाला कदम था।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि अंबेडकर ने पहले इस्लाम अपनाने का भी विचार किया था? जी हां, उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म पर भी गंभीरता से विचार किया था, पर आखिरकार उन्होंने बौद्ध धर्म को ही क्यों चुना, यह जानना बेहद ज़रूरी है।
अंबेडकर का दर्द: “मैं हिंदू के रूप में पैदा हुआ, लेकिन हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं”अंबेडकर ने कई बार कहा था कि छुआछूत और जात-पात की ज़ंजीरों में जकड़े हिंदू धर्म में उनके लिए कोई सम्मान नहीं था। उन्होंने कहा था—
“मैं हिंदू के रूप में पैदा जरूर हुआ हूं, लेकिन हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।”
यह सिर्फ एक बयान नहीं था, बल्कि एक पूरी जाति के आत्म-सम्मान और समानता की पुकार थी।
तो इस्लाम क्यों नहीं अपनाया?
अंबेडकर ने इस्लाम को गहराई से समझा। उनके पास पाकिस्तान के नेता मोहम्मद अली जिन्ना और कई मुस्लिम विद्वानों के प्रस्ताव भी आए। इस्लाम में सामाजिक समानता की बात उन्हें आकर्षित भी करती थी। लेकिन अंबेडकर को चिंता थी कि धर्म बदलने से कहीं उनके अनुयायी भारत में ‘अल्पसंख्यक’ बनकर नई मुश्किलों में न फंस जाएं।
बौद्ध धर्म ही क्यों?
अंबेडकर ने आखिरकार 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया। इसका कारण था—
- बौद्ध धर्म में जात-पात नहीं है
- यह भारतीय मिट्टी से जुड़ा हुआ धर्म है
- इसमें अहिंसा और करुणा की भावना है
- बुद्ध का संदेश तर्क, मानवता और समानता पर आधारित है
उन्होंने कहा—
“बुद्ध का धर्म ही सच्चा मानव धर्म है, जिसमें कोई भेदभाव नहीं।”
आज भी प्रासंगिक हैं अंबेडकर के विचार
आज जब समाज में फिर से जातिगत भेदभाव की घटनाएं सामने आती हैं, तब अंबेडकर की सोच और उनका फैसला और भी ज़्यादा महत्व रखता है। उन्होंने सिर्फ धर्म नहीं बदला, उन्होंने सोच और पहचान बदलने की प्रेरणा दी।
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