भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आज एक ऐतिहासिक निर्णय में डिजिटल एक्सेस (Digital Access) को मौलिक अधिकार (Fundamental Right) घोषित कर दिया है। कोर्ट ने साफ कहा कि अब सरकार की यह संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह सभी नागरिकों — खासकर ग्रामीण और हाशिए पर रहने वाले वर्गों — को समान रूप से डिजिटल सेवाओं तक पहुंच सुनिश्चित करे।
यह फैसला जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने दो जनहित याचिकाओं पर सुनाया, जिनमें से एक याचिका एक एसिड अटैक सर्वाइवर ने दायर की थी। पीड़िता ने बैंक में KYC (Know Your Customer) प्रक्रिया के दौरान आने वाली परेशानियों का ज़िक्र किया था।
डिजिटल भेदभाव अब असंवैधानिक
कोर्ट ने कहा, “डिजिटल डिवाइड को खत्म करना अब नीति का सवाल नहीं बल्कि संविधानिक कर्तव्य है। जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 21) में अब डिजिटल पहुंच को भी शामिल करना अनिवार्य हो गया है।”
कोर्ट ने बताया कि आज के समय में हेल्थकेयर, बैंकिंग, शिक्षा जैसी ज़रूरी सेवाएं डिजिटल माध्यमों (Digital Access)से ही उपलब्ध होती हैं। ऐसे में जिनके पास इन सेवाओं तक पहुंच नहीं है, वे पीछे छूट रहे हैं।
20 अहम निर्देश दिए सुप्रीम कोर्ट ने
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और संबंधित एजेंसियों को KYC प्रक्रिया को अधिक समावेशी और सुलभ बनाने के लिए 20 जरूरी दिशा-निर्देश जारी किए हैं। कोर्ट ने कहा कि विशेष रूप से विकलांग और एसिड अटैक पीड़ितों के लिए मौजूदा नियमों में बदलाव किया जाना चाहिए
क्या था मामला?
एक एसिड अटैक सर्वाइवर, प्रज्ञा प्रसून, जुलाई 2023 में बैंक में खाता खोलने पहुंची थीं। लेकिन Digital Access डिजिटल केवाईसी प्रक्रिया के दौरान बैंक ने उनसे “ब्लिंक” करने यानी पलकों को झपकाने की मांग की — ताकि यह साबित हो सके कि वे जीवित हैं। लेकिन उनके चेहरे की स्थिति के कारण यह संभव नहीं हो पाया। सोशल मीडिया पर मामला उठने के बाद बैंक ने अपवाद के रूप में खाता खोलने की अनुमति दी।
प्रज्ञा ने कोर्ट से अपील की थी कि एसिड अटैक पीड़ितों और अन्य विकलांग व्यक्तियों के लिए केंद्र सरकार नई गाइडलाइंस जारी करे, ताकि वे बिना भेदभाव के डिजिटल सेवाओं का उपयोग कर सकें।
जजों ने क्या कहा?
जस्टिस महादेवन ने इस आदेश को लिखा, जिसे उनके साथी जस्टिस पारदीवाला ने “शानदार” बताते हुए सराहना की। उन्होंने कहा कि अब आर्थिक अवसरों से लेकर मूलभूत सेवाओं तक पहुंच डिजिटल माध्यमों से ही संभव है, इसलिए Article 21 (जीवन का अधिकार) की नई व्याख्या आवश्यक हो गई है।
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