नई दिल्ली – एक समय था जब कूकर खांसी (जिसे हूपिंग कफ या पर्टुसिस भी कहा जाता है) बच्चों की मृत्यु का एक प्रमुख कारण हुआ करती थी, खासकर अमेरिका और दुनिया के अन्य हिस्सों में। लेकिन 1940 के दशक में जब इसका टीका अस्तित्व में आया, तब इस जानलेवा बीमारी पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सका।
हालांकि, बीते कुछ दशकों में यह देखने को मिला है कि टीकाकरण के बावजूद whooping cough(हूपिंग कफ) के मामले दोबारा बढ़ रहे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि मौजूदा टीकों की प्रभावशीलता समय के साथ घट जाती है, जिससे इस बीमारी के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है।
अब एक नई रिसर्च ने इस दिशा में आशा की किरण दिखाई है। इस शोध में यह समझने की कोशिश की गई है कि शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) किस प्रकार हूपिंग कफ के बैक्टीरिया बोर्डेटेला पर्टुसिस पर प्रतिक्रिया करता है। वैज्ञानिकों ने पाया कि मौजूदा टीके शरीर में “मेमोरी टी-सेल्स” को उतनी मजबूती से सक्रिय नहीं करते, जो कि दीर्घकालिक प्रतिरक्षा के लिए जरूरी हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि हम इस प्रतिक्रिया को बेहतर ढंग से समझ पाएं, तो ऐसे नए टीके विकसित किए जा सकते हैं जो लंबे समय तक प्रभावी रहेंगे और बच्चों को दोबारा इस बीमारी के खतरे से बचा सकेंगे।
अमेरिका में हुए इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने विशेष रूप से बच्चों और किशोरों में प्रतिरक्षा प्रणाली की गतिविधियों का विश्लेषण किया। इसके अलावा उन्होंने यह भी अध्ययन किया कि क्यों वर्तमान टीके समय के साथ कम प्रभावी हो जाते हैं।
यह शोध आने वाले समय में टीका वैज्ञानिकों को ऐसे फार्मूले बनाने में मदद करेगा, जो न केवल लंबे समय तक प्रभावी होंगे, बल्कि महामारी जैसी स्थितियों में भी ज्यादा सुरक्षा प्रदान कर पाएंगे।
निष्कर्ष
यह रिसर्च इस बात की ओर इशारा करती है कि केवल बीमारी से बचाव ही नहीं, बल्कि टीकों की गुणवत्ता और टिकाऊपन में सुधार करना अब समय की मांग है। यदि यह नई रिसर्च सफलतापूर्वक प्रैक्टिकल रूप में लागू होती है, तो हूपिंग कफ जैसी घातक बीमारी को पूरी तरह खत्म करने का सपना जल्द ही साकार हो सकता है।